एक चुप्पी जो चीख बन गई: KGMU में कैंसर मरीज की दर्दनाक कहानी

एक चुप्पी जो चीख बन गई: KGMU में कैंसर मरीज की दर्दनाक कहानी

25 मार्च 2025, लखनऊ
कल, लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी (KGMU) में एक ऐसी घटना हुई, जिसने हर किसी को झकझोर कर रख दिया। एक 32 साल की महिला, जो कैंसर से जूझ रही थी, ने शताब्दी फेज-2 की बिल्डिंग से कूदकर अपनी जिंदगी खत्म कर ली। लखीमपुर खीरी की रहने वाली यह मरीज सर्जिकल ऑन्कोलॉजी विभाग में इलाज के लिए भर्ती थी। ट्रॉमा सेंटर के डॉक्टरों ने उसे बचाने की कोशिश की, लेकिन उसे मृत घोषित कर दिया गया। पुलिस इसे आत्महत्या मान रही है और जाँच जारी है, लेकिन यह घटना कुछ गहरे सवाल छोड़ गई है—क्या हम वाकई अपने आसपास के लोगों को समझ पाते हैं?




एक जिंदगी का अनकहा दर्द
यह महिला कैंसर जैसी गंभीर बीमारी से लड़ रही थी। शारीरिक दर्द, इलाज की लंबी प्रक्रिया और अनिश्चित भविष्य—यह सब अपने आप में एक भारी बोझ है। लेकिन क्या सिर्फ बीमारी ही इसका कारण थी? या फिर उसकी चुप्पी में कुछ ऐसा छिपा था, जिसे कोई सुन नहीं पाया? हम अक्सर सोचते हैं कि अस्पताल सिर्फ शरीर का इलाज करते हैं, लेकिन मन का क्या? क्या उसने कभी किसी से अपने डर, अपनी थकान को साझा करने की कोशिश की होगी? और अगर की, तो क्या उसे वह सहारा मिला, जिसकी उसे जरूरत थी?

मानसिक स्वास्थ्य: अनदेखी का शिकार
यह घटना हमें मजबूर करती है कि हम मानसिक स्वास्थ्य को गंभीरता से लें। कैंसर जैसी बीमारी न सिर्फ शरीर को तोड़ती है, बल्कि मन को भी खोखला कर देती है। मरीजों को न सिर्फ दवाइयों की, बल्कि भावनात्मक समर्थन की भी जरूरत होती है। KGMU जैसे बड़े संस्थान में हर दिन सैकड़ों मरीज आते हैं, लेकिन क्या वहाँ मनोवैज्ञानिक सहायता की पर्याप्त व्यवस्था है? क्या हमारा समाज अब भी मानसिक स्वास्थ्य को कमजोरी मानता है, बजाय इसके कि इसे एक जरूरत समझे?

हम सब की जिम्मेदारी
यह सिर्फ उस महिला की कहानी नहीं है, बल्कि उन तमाम लोगों की है जो चुपचाप अपने दर्द को सहते हैं। अगर आपके आसपास कोई बीमार है, उदास है या खामोश है, तो एक बार रुकें। पूछें, “आप ठीक तो हैं न?” शायद आपका यह सवाल किसी को अंधेरे से बाहर ला सके। परिवार, दोस्त या यहाँ तक कि अस्पताल स्टाफ—हम सब मिलकर एक ऐसा माहौल बना सकते हैं, जहाँ कोई अकेला न महसूस करे।

अंतिम विचार
KGMU में हुई यह घटना एक दुखद याद दिलाती है कि जिंदगी की जंग सिर्फ दवाइयों से नहीं जीती जाती। उस 32 साल की महिला की चुप्पी अब चीख बन चुकी है—एक चीख जो कह रही है कि हमें सुनना सीखना होगा। क्या हम तैयार हैं इस आवाज़ को सुनने के लिए, या फिर यह भी खबरों के ढेर में दफन हो जाएगी?

आप क्या सोचते हैं? अपनी राय हमारे साथ साझा करें।

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