"एम्स गोरखपुर के शोध में मोनोक्लोनल एंटीबॉडी से रेबीज बचाव में 100% सफलता। अब घोड़े के खून से बनी वैक्सीन की जरूरत नहीं, बिना साइड इफेक्ट के सुरक्षित

रेबीज (Rabies) से बचाव के लिए चिकित्सा विज्ञान ने एक बड़ी उपलब्धि हासिल की है। अब इस जानलेवा बीमारी से बचाने के लिए घोड़े के खून से बनी वैक्सीन की जरूरत नहीं होगी। प्रयोगशाला में तैयार की गई मोनोक्लोनल एंटीबॉडी (Monoclonal Antibody) पूरी तरह कारगर साबित हुई है।



यह अध्ययन एम्स गोरखपुर (AIIMS Gorakhpur) के फार्माकोलॉजी विभाग के अध्यक्ष प्रो. हीरा भल्ला के नेतृत्व में देश के कई नामी विशेषज्ञों की टीम ने किया। शोध 21 अगस्त 2019 से 31 मार्च 2022 तक चला और इसे दुनिया की प्रतिष्ठित चिकित्सा पत्रिका "द लेंसेट" (The Lancet) में प्रकाशित किया गया है। पत्रिका ने इसे रेबीज पोस्ट एक्सपोजर प्रोफाइलेक्सिस के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण प्रगति बताया है।

📊 अध्ययन के मुख्य तथ्य

  • कुल 3,994 रोगी (3,001 पुरुष और 993 महिलाएं) शामिल किए गए।

  • इनमें से 2,996 को मोनोक्लोनल एंटीबॉडी और 998 को घोड़े के खून से बनी वैक्सीन दी गई।

  • सभी का एक वर्ष तक फॉलोअप किया गया।

  • नतीजा: किसी भी मरीज में रेबीज संक्रमण नहीं मिला

हालांकि घोड़े के खून से बनी वैक्सीन सस्ती है, लेकिन इससे एलर्जिक रिएक्शन का खतरा होता है। वहीं, मोनोक्लोनल एंटीबॉडी आधुनिक बायोटेक्नोलॉजी से लैब में तैयार की जाती है, जिससे रक्तजनित रोगों का खतरा नहीं रहता और बड़े पैमाने पर उत्पादन भी संभव है।

🧬 मोनोक्लोनल एंटीबॉडी क्या है?

मोनोक्लोनल एंटीबॉडी प्रयोगशालाओं में बनाए गए विशेष प्रोटीन होते हैं, जो हमारे शरीर में मौजूद प्राकृतिक एंटीबॉडी की तरह काम करते हैं। ये एंटीजन (Antigen) को पहचानकर उनसे चिपक जाते हैं और उन्हें नष्ट कर देते हैं, जिससे संक्रमण फैलने से रुक जाता है।

💬 विशेषज्ञों की राय

एम्स गोरखपुर की कार्यकारी निदेशक मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) डॉ. विभा दत्ता ने कहा—

“यह उपलब्धि हमारे संस्थान की प्रतिबद्धता, विशेषज्ञता और टीम वर्क का उत्कृष्ट उदाहरण है। प्रो. भल्ला का योगदान न केवल एम्स गोरखपुर बल्कि पूरे देश के लिए गर्व की बात है। यह शोध वैश्विक रेबीज रोकथाम रणनीति को नई मजबूती देगा।”


 

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