हड़प्पा-मोहनजोदड़ो में खुदाई के दौरान मिली चीजों, खासकर मूर्तियों की व्याख्या को लेकर इतिहासकार पिछले लंबे समय से अलग-अलग दृष्टिकोण सामने रखते आए हैं।
इंडियन काउंसिल ऑफ हिस्टॉरिकल रिसर्च (ICHR) ने अपने नए पेपर में दावा किया है कि मोहनजोदड़ो में मिली मशहूर 'डांसिंग गर्ल' (नर्तकी) की मूर्ति असल में हिंदू देवी पार्वती हैं।
यह मूर्ति करीब 2500 ईसापूर्व की बताई जाती है।
ICHR की हिंदी पत्रिका 'इतिहास' में यह दावा किया गया है। पत्रिका में छपे 'वैदिक सभ्यता का पुरातत्व' नाम के शोध पत्र में यह बात कही गई है।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रफेसर ठाकुर प्रसाद वर्मा ने दावा किया कि 'नर्तकी' की यह मूर्ति पार्वती की ही होनी चाहिए। उन्होंने इसके पीछे यह तर्क दिया कि 'जहां कहीं भी शिव होंगे, वहां पार्वती भी होनी चाहिए।'
यह पहला मौका है जब इस मूर्ति के पार्वती होने का दावा किया गया है। मालूम हो कि 1931 में हुई खुदाई से लेकर आजतक किसी भी इतिहासकार या पुरातत्वेत्ता ने हड़प्पा सभ्यता में मिली किसी भी प्रतिमा या मूर्ति के पार्वती होने का दावा नहीं किया है।
सिंधू घाटी सभ्यता में शिव की पूजा के प्रचलन संबंधी दावों का समर्थन करते हुए वर्मा ने लिखा है कि खुदाई में मिली एक शॉल पर बने 'पुजारी राजा' की आकृति बताती है कि वहां का राजा किसी हिंदू देवता का उपासक था। वर्मा का कहना है कि शॉल पर मिली तिकोनी घास असल में बेलपत्र है। मालूम हो कि बेलपत्र को शिव की पूजा में इस्तेमाल किया जाता है।
ठाकुर प्रसाद वर्मा ने 'सील 420' का जिक्र भी इसी क्रम में किया है। खुदाई में मिली कई मुहरों को संख्याबद्ध नाम दिया गया था। इनमें ही यह 'सील 420' मुहर भी है। इस मुहर पर योग की मुद्रा में एक आकृति बैठी है, जिसके आसपास जानवर हैं। ठाकुर का दावा है कि यौगिक मुद्रा में बैठी यह आकृति हिंदू देवता शिव ही हैं। ठाकुर के इस दावे पर इतिहासकार बंटे हुए नजर आते हैं। कुछ इतिहासकार जहां इस बात से सहमति जताते हैं, जबकि कई अन्य इतिहासकारों का कहना है कि यह मुहर में एक महिला को दर्शाया गया है, ना कि पुरुष को।
जिस खुदाई के कारण हड़प्पा और मोहनजोदड़ो सबसे पहले दुनिया की नजरों में आए, उस खुदाई का श्रेय जॉन मार्शल को जाता है। जॉन 1902 से 1928 तक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के प्रमुख रहे थे। शुरुआत में उन्होंने भी 'सील 420' पर बनी आकृति को शिव का एक रूप बताया था, लेकिन बाद में ज्यादातर इतिहासकारों ने उनकी इस व्याख्या को खारिज कर दिया था।
साभार: नवभारत टाइम्स